भाग्य विधाता : अतुल्य भारत की गाथा – Deshbhakt Bharat Poem
काल के कपाल पे लिखी मैंने अपनी गाथा ,
मैं भारत हु , विश्व भाग्य विधाता ।
वीरोश्रवा वीर बसे है मेरे कण कण में ,
रक्त की नदिया बही है मेरे प्रण में ।
पर सदियों से यही अडिग है मेरी सत्ता ,
मैं भारत हु , विश्व भाग्य विधाता ।।
नभ के खगो में भी मेरी पहचान ,
अंत के प्रमाणों में भी मेरा प्रमाण ।
वक़्त के पहिये पे है मेरा भ्रमण ,
अतीत के चीखो में भी मेरा श्रवण ।
विविधताओं को थामे सदियों से बना दाता ,
मैं भारत हु , विश्व भाग्य विधाता ।।
रेत के ताप में खुद को तपाया है ,
तपा तपा के खुद को स्वर्ण बनाया है ।
कई स्वर्ग बसाया है मैंने अपने अंदर ,
मेरे भूतल में समाया , कई लाख समंदर ।
नव निर्माण का श्रेय भी मुझे है जाता ,
मैं भारत हु , विश्व भाग्य विधाता ।।
Rishabh Karn
Very good..keep it up
Amazing pottery